"मैं" नींद की आगोश में
मैं बिन रहा है,
चुन रहा है,
ख्वाब सारे राख से
धधक-धधक जले मिले हैं
ख्वाब सारे खाक में
मैं कह रहा, कि मैं ही हूँ
इस पार भी उस पार भी
संसार ही तो सत्य था,
रहेगा कल है आज भी
अहम ने की हैं कोशिशें,
कि मैं नहीं अद्वैत है
इन कोशिशों की राशि है,
गंगा में जितनी रेत है
न प्रेम की महानता
हुई कभी आवेश में,
अवश्य ही न प्रेम ही
बना कभी किसी द्वेष में
मैं नींद की आगोश में,
बस ख्वाब आँखों में भरे
न ब्रह्म की कोई आस,
न संसार से जाना परे
हम नींद की आगोश में
बस लोभ पीछे चल पड़े,
न ब्रह्म की कोई आस,
न संसार से जाना परे
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