लॉकडाउन
हम बैठे बंद मकानों में
न कोई खेत खलियानो में जिन सड़कों पर राह न मिलती थी वो सब बैठे सन्नाटो में
कुछ घर के काम में व्यस्त हुए कुछ कार्यालय की विपदा में कुछ सोच रहे कब मौज मिलेगी? कुछ रोटी को भी तरस रहे
कुछ अंतिम फ्लाइट ले घर पहुंचे कुछ अभी राहों में भटक रहे कुछ सोच रहे क्या नया बनाऊ कुछ कुछभी खाने को तरस रहे
विपदा, संकट ये दुःख की घड़ी कुछ ज्यादा है तो बाँट सही ढूंढ उन्हें जो हैं मुस्किल में कुछ करने की अब ठान सही
मैं धन्य सभी उन मानुष का जिनके सीने में दिल हैं बड़े जो ढूंढ रहे, न चुप बैठे वो अंतिम पंक्ति के साथ खड़े क्योंकि अमीर तो सह लेगा मगर गरीब?